Zenab rehan

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दूसरा अध्याय




इस (आत्मा) को जाननेवाला कोई बिरला ही होता है। (जानकर भी दूसरों को इसे) बताने वाला तो (और भी) बिरला होता है। (यदि कोई बताने वाला हुआ भी तो) इसके संबंध में बात सुनने वाला (तो उससे भी) बिरला होता है। (खूबी तो यह है कि) इसे पढ़-सुन के भी कोई जानता ही नहीं - शायद ही कोई मुश्किल से जाने। 29।

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।

तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥ 30 ॥

(इसलिए जब) हे भारत, सभी के देह की मालिक यह (आत्मा) कभी भी मारी जा सकती है नहीं, तो (नाहक) किसी भी भौतिक पदार्थ के बारे में तुम्हारा अफसोस करना अच्छा नहीं है। 30।

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।

धार्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥ 31 ।

अपने धर्म का खयाल करके भी तुम्हारा (युद्ध से) डिगना उचित नहीं है। क्योंकि क्षत्रिय के लिए (तो) धर्म-युद्ध से बढ़ के कोई चीज हो ही नहीं सकती। 31।

धर्मशास्त्र की बात पहले तो चला सकते न थे। क्योंकि अर्जुन स्मृतियों के कोरे विधानों और आदेशों को आँख मूँद के मानने को तैयार न था। वह तो कोई अनाड़ी या साधारण आदमी था नहीं कि स्मृतियाँ अपनी लाठी से उसे हाँक सकें। वह तर्क-दलील की कसौटी पर कसके ही किसी चीज को भली-बुरी मानने को तैयार था। इसीलिए कृष्ण ने पहले यही किया और दार्शनिक युक्तियों से उसे माकूल किया। उसके बाद स्मृतियों के आदेश भी मजबूती के साथ काम कर सकते थे। इसीलिए पीछे उनकी चर्चा भी दो श्लोकों में आ गई है। मगर यह यों ही है। इसका कोई स्वतंत्र महत्त्व नहीं है। इसीलिए गीताधर्म या गीता की अपनी चीजों के भीतर इसकी गिनती नहीं। यह वैसी ही बात है जैसी अपयश और मान-अपमानवाली 33-37 श्लोकों में कही बातें। वह तो गीताधर्म में आती हईं नहीं, यह निर्विवाद है। वे कही गई हैं व्यावहारिकता की दृष्टि से ही अर्जुन में केवल गरमी लाने के लिए। गीता व्यावहारिक मार्ग को ही पकड़ के अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होती है और यश-अपयश की बात सबसे ज्यादा चुभने के कारण ही व्यावहारिक है।

धर्म-युद्ध कहने का मतलब यह है कि युद्ध के समय क्या किया जाए क्या न किया जाए, आदि बातों के लिए कुछ सर्वसम्मत नियम-कायदे हमेशा से माने जाते रहे हैं। हेग की परंपरा (Hague Convention) के नाम से वर्तमान समय में भी ऐसी अनेक बातें सर्वमान्य समझी जाती हैं। इन्हीं में घायलों की सेवा-शुश्रूषा, युद्धबंदियों के साथ सलूक, जो स्थान खुले (open) घोषित कर दिए गए उन पर आक्रमण न करना, आम जनता (Civil population) पर प्रहार न करना जहरीली गैस का प्रयोग न करना आदि बातें आ जाती हैं। हालाँकि अपनी-अपनी गर्ज से आज कभी इन नियमों में किसी को कोई तोड़ता है, तो किसी को दूसरा ही। फलत: नात्सी जर्मनी के इस युद्ध में उसके पक्ष के सभी ने ही इन्हें तोड़-ताड़ के खत्म कर दिया है। महाभारत के भीष्म पर्व के देखने से पता चलता है कि युद्धारंभ के पहले ऐसे सभी नियम दोनों पक्षों ने साफ-साफ स्वीकार कर लिए थे। अतएव इन्हीं नियमों के अनुसार होने वाले युद्ध को धर्मयुद्ध और इन्हें तोड़-ताड़ के होने वाले को अधर्मयुद्ध कहा है। यहाँ धर्म शब्द का दूसरा अर्थ असंभव है। धर्मशास्त्र में लिखा युद्ध ही धर्म युद्ध है यह भी मतलब यहाँ नहीं है। सभी युद्ध तो धर्म शास्त्र में ही लिखे रहते हैं। इसलिए जब तक उनके संबंध में लागू पूर्वोक्त नियमों को नहीं कहते तब तक धर्मयुद्ध कहना बेकार है। और जब स्वधर्म कही चुके हैं, तो फिर दुहराने का क्या प्रयोजन?

जो लोग यहाँ स्वधर्म की बात लिखी देख के इसकी मिलान आगे के 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' (2। 47) से करते हैं वह भी भूलते हैं। यह प्रकरण ज्ञान का ही है। 'ऐषा तेऽभिहिता' (2। 39) से ही कर्मयोग का प्रकरण शुरू होता है। इसलिए बीच में ही उसकी बात यहाँ कैसे आ सकती है? इसी प्रकार 'श्रेयान् स्वधर्म: (3। 35 तथा 18। 47) में भी स्वधर्म शब्द स्मृतियों के धर्मों के लिए ही नहीं आया है। वह तो व्यापक अर्थ में कर्ममात्र का ही वाचक है। यह बात हम पहले ही अच्छी तरह लिख चुके हैं। इन नियमों के साथ लड़ी जाने वाली लड़ाई भी धर्मशास्त्र-सम्मत होनी चाहिए, यही आशय यहाँ है। 'श्रेयस' शब्द के बारे में भी जान लेना चाहिए कि मोक्ष के अर्थ में उसका खासतौर से प्रयोग गीता में कहीं शायद ही हुआ हो, जैसा कि कठोपनिषद् के 'अन्यच्छ्रेरयोऽन्यदुतैव' तथा 'श्रेयश्च प्रेयश्च' (1। 2। 1-2) में आया है। तीसरे अध्या य के शुरू के दूसरे श्लोक के 'श्रेय:' शब्द को कल्याण या मोक्ष के अर्थ में ले सकते हैं और इसका कारण भी आगे लिखा है कि कहाँ ऐसा अर्थ होता है। मगर यहाँ कल्याण ही अर्थ उचित लगता है। इसीलिए आगे 'श्रेय: परमवाप्स्यथ' (3। 11) में श्रेय: का विशेषण परं हो जाने से परमश्रेय या परमकल्याण का अर्थ मोक्ष ठीक लगता है। क्योंकि वही तो आखिरी कल्याण है। असल में प्रशस्य शब्द से ही यह श्रेयस शब्द 'प्रशस्यस्य श्र:' (5। 3। 60) पाणिनि सूत्र की सहायता से बनता है। इसमें प्रशस्य का अर्थ है प्रशंसनीय या प्रशंसा के योग्य अर्थात अच्छा। उसी से बने श्रेयस शब्द का प्रयोग करते हैं ऐसी ही जगह जहाँ कइयों में एक को अच्छा समझ के चुन लेना हो। इससे स्वभावत: ज्यादा अच्छा सभी से अच्छा इसी मानी में श्रेयस शब्द आता है और हमने यही लिखा है। जब दो में एक को अच्छा लिखते हैं तो उतने ही से यह बात अर्थात सिद्ध हो जाती है कि वह बहुत अच्छा है। दूसरे की अपेक्षा कहने का यही अर्थ होता है। गीता में आमतौर से ऐसा ही पाया जाता है भी। इसी के अर्थ में 'विशिष्यते' शब्द आया है। दोनों का ठीक-ठाक एक ही अर्थ है। हाँ, जहाँ किसी का मुकाबिला न हो, या दो में एक को चुनना न हो वहीं पर मोक्ष आदि अर्थ आते हैं, जैसा कठोपनिषद् का दृष्टांत दिया गया है। वहाँ श्रेयस शब्द का स्वतंत्र प्रयोग है।

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।

सुखिन: क्षत्रि या : पार्थ लभंते युद्धमीदृशम्॥ 32 ॥

हे पार्थ, अकस्मात या आप ही आप खुले स्वर्ग के द्वार के रूप में हाजिर इस तरह का युद्ध तो खुशकिस्मत क्षत्रियों को ही मयस्सर होता है। 32।

अथ चे त्त्व मिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।

तत: स्वधर्मं की र्त्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥ 33 ॥

और अगर तुम यह धर्मयुद्ध न करोगे तो अपने धर्म और कीर्ति दोनों को गँवा के (केवल) पाप बटोरोगे। 33।

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।

संभावितस्य चाकीर्त्ति र्मरणादतिरिच्यते॥ 34 ॥

(इतना ही नहीं), लोग तुम्हारे अखंड अपयश - हमेशा रहने वाली बदनामी - की चर्चा भी करते रहेंगे। और प्रतिष्ठित (पुरुष) के लिए (यह) अपयश तो मौत से भी बढ़कर (बुरा) है। 34।

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा:।

षां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥ 35 ॥

(यही नहीं), महारथी लोग भी समझेंगे कि तू डर के मारे ही युद्ध से भाग गया है। (फलत:) जो लोग (आज) तुझे ऊँची नजर से देखते हैं उन्हीं की नजरों में तू गिर जाएगा। 35।

अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिता:।

निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दु:खतरं नु किम्॥ 36 ॥

(इसी प्रकार) तेरे दुश्मन भी तुझे बहुत-सी गालियाँ देंगे (और) तेरी ताकत की भी शिकायत करेंगे। भला, उससे बढ़ के बुरा और क्या हो सकता है? 36।

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।

तस्मादुत्तिष्ठ कौंतेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥ 37 ॥

(यह भी तो देख कि) यदि युद्ध में मर जाएगा तो स्वर्ग जाएगा और अगर जीतेगा तो राजपाट मिलेगा। (इस प्रकार तेरे दोनों ही हाथों में लड्डू है।) इसलिए ओ कौंतेय, लड़ने का निश्चय करके खड़ा हो जा - डट जा। 37।

सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ 38 ॥

जय-पराजय, हानि-लाभ और सुख-दु:ख में एक रस रह के युद्ध में डट जा। ऐसा होने पर तुझे पाप छूएगा भी नहीं। 38।

इसी श्लोक के साथ ही अध्या त्म विवेक के प्रकरण का इस अध्या य में अंत हो के आगे कर्मयोग का प्रसंग शुरू होता है। उसके शुरू के आठ श्लोक भूमिका की तरह हैं। नवें या गीता के 47वें श्लोक में कर्मयोग का निरूपण शुरू हुआ है। इस श्लोक में भी समत्व या समता की बात कही गई है। जिसे समदर्शन भी कहते हैं। यह दूसरी बार समदर्शन की बात आई है। पहली बार, जैसा कि कह चुके हैं, 15वें श्लोक के 'समदु:खसुखं' में आ चुकी है। इसलिए इस श्लोक का अर्थ समझने में उसे भी दृष्टि के सामने रखना पड़ेगा, खासकर उसके पूर्वार्द्ध 'यंहि न व्यथयन्त्येते' आदि को। नहीं, तो बहुत गड़बड़-घोटाला हो सकता है।

बात यह है कि जब कम पानी वाले तालाब या गढ़े में मछुए मछली मारना चाहते हैं, तो उसके पानी को नीचे-ऊपर इतना ज्यादा हिला-डुला, चला और मथ देते हैं कि पानी और कीचड़ मिल के एक हो जाते हैं। इससे मछलियाँ घबरा के ऊपर आ जाती या थक-थका के ढीली पड़ जाती हैं। फलत: पहले की तरह तेजी से इधर-उधर भाग-फिर सकती हैं नहीं। इस तरह उनके पकड़ने में आसानी हो जाती है और बात की बात में वे मछुओं के कब्जे में आ जाती हैं। नहीं तो उन्हें पकड़ने में मछुओं को बहुत परेशानी होती है। इसी तरह दही को भी मथानी से ऐसा मथ देते हैं कि पानी और दही एक हो जाते हैं। बंदर जब किसी पेड़ पर पहले-पहल चढ़ता है तो अकसर उसकी डालों को पकड़-पकड़ के झकझोर देता है और सारे पेड़ को कँपा देता है, बेचैन कर देता है। जब छोटा-सा शिकार जबर्दस्त शिकारी कुत्ते के हाथ लगता है तो उसे पकड़ के शुरू में ही वह ऐसा झकझोरता है कि शिकार के होश ही गायब हो जाते हैं और कुत्ता उसे आसानी से खा जाता है।

यही दशा मन की है। वह आत्मा को अपनी मर्जी के मुताबिक नचाने के पहले उसे अपने कब्जे में सोलहों आना करना चाहता है और उसी की तरकीब करता रहता है। मात्रास्पर्श या भौतिक पदार्थों के संबंध की जो बात पहले कही जा चुकी है वह उसी तरकीब का एक भाग है। मन इंद्रियों की पीठ ठोंकता है और वह भले-बुरे सभी पदार्थों के साथ जुट जाती है। यही तो है मात्रास्पर्श। गुरुजनों, इष्ट-मित्रों, बंधु-बांधवों एवं पुत्र-कलत्र आदि का ताल्लुक और है क्या यदि मात्रास्पर्श नहीं है? जो सहृदय न हो, जड़-पत्थर हो या पत्थर जैसा हो, पागल हो उसमें या तो इंद्रियाँ होती ही नहीं, या वह काम करती ही नहीं। इसीलिए वैसों को क्या सुख-दु:ख होगा?

इस प्रकार मात्रास्पर्श होने के बाद ही बुरी-भली चीजों का अनुभव होता है उनकी जानकारी होती है, शत्रु-मित्र, शीत-उष्ण, अपने-पराए आदि की जानकारी होती है। जैसा कि आग को छूते ही गरमी का अनुभव हुआ करता है और बर्फ को छूते ही सरदी का। उसी के बाद हाथ-पाँव जलते या ठिठुरते हैं और फौरन तकलीफ या आराम का, दु:ख और सुख का अनुभव होता है। फिर तो इनसान या तो आनंद में विभोर हो जाता है, या कलेजा पीट के बेहोश। यदि सुख-दु:ख हल्के रहे तो यह बात कम हुई। मगर अगर काफी हुए तो यह हालत भी परले दर्जे की हो गई! मन के जाल की बात को लेकर हम आनंद-विभोरता या तकलीफ वाली बेसुधी को ही यहाँ ले रहे हैं। इस तरह जब यही बात बार-बार होने लगी तो मन ने समझ लिया कि आत्माराम पर हमारा पूरा कब्जा हो गया। वह ताड़ जाता है कि अब तो बंदर अच्छी तरह फँस गया, इसलिए इसे जैसे चाहें नचा सकेंगे। युद्ध में भी पहले जय-पराजय, बाद में लाभ-हानि और अंत में सुख-दु:ख होता है जिसका जिक्र श्लोक में आया है।

मगर ऐसा भी होता है कि किन्हीं मस्तराम फकीर के पास चाहे आप अच्छी से अच्छी या बुरी से बुरी चीजें लाएँ, उन पर उनका कोई असर होता ही नहीं! क्यों असल में वहाँ उलटी बात जो है। कहाँ तो दूसरों के मनीराम - मन - आत्माराम को नाचने और फँसाने की कोशिश में रहते तथा सफल भी होते हैं और कहाँ मस्तराम के आत्माराम ने ही उलट के मनीराम पर मुसक चढ़ा दी है। यहाँ तो मन ही मस्तराम के कब्जे में पड़ा रो रहा है। उसकी आई-बाई ही हजम है। इसीलिए उसके सभी के सभी चेले-चाटी और दूत-मनहूस है, बेकार-सी पड़ी हैं। तब मात्रास्पर्श कैसे हो और आगे की लीला भी कैसे खड़ी हो? यहाँ तो सारा नाटक ही बंद है। यह भी नहीं कि मस्तराम पत्थर हैं या मुर्दा, जिससे सुख-दु:ख आदि जानते ही नहीं। वह तो सब कुछ जानते ही हैं। मगर जान लेना दूसरी चीज है और उसमें चिपक जाना निराली बात है। स्त्री। को विरागी भी देखता है और लंपट भी। मगर दोनों के देखने में फर्क है - बहुत बड़ा बुनियादी फर्क है। यही बात सुख-दु:खादि के मुतल्लिक भी है।

पंदरहवें श्लोक में जो 'व्यथयन्ति' लिखा है वही इस फर्क को ठीक-ठीक बताता है। उसका अर्थ गढ़े के पानी या दही के मथने और बंदर या कुत्ते के झकझोरने के दृष्टांत में बताया जा चुका है। भौतिक पदार्थों के संसर्ग जिसे व्यग्र, उद्विग्न, परेशान या बेचैन नहीं कर सकते, नहीं कर पाते वही सुख-दु:ख में सम है, एक रस है। समदु:ख-सुख है, समदर्शी है। उसके दिल-दिमाग की गंभीरता, स्थिरता और एकरसता बिगड़ पाती नहीं। वह इन अंधड़-तूफानों के हजार आने पर भी पर्वत की तरह अचल, अटल रहता है, न कि घास-पात या पेड़-पल्लव की तरह काँपता और बेचैन हो जाता है। उसके दिल-दिमाग की ममता और गंभीरता (Serenity and balance) कभी बिगड़ती (upset) नहीं। फिर पाप-पुण्य का क्या सवाल? ये तो बहुत नीचे दर्जे की चीजें हैं और वह इतना ऊँचा उठा है कि जैसे चाँद को कोई छू नहीं सकता चाहे हजार कोशिश करे, वैसे ही उसे पुण्य-पाप छू नहीं सकते, उसके निकट फटक नहीं सकते। वह तो मस्त है। बेशक, दुनिया की बेचैनी देख-देख के मुस्कुरा उठता है, कभी-कभी हँस देता है। इस चीज का ज्यादा विचार पहले ही हो चुका है। यहाँ अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है।

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगेत्विमां शृणु।

बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्म बंधं प्रहास्यसि॥ 39 ॥

यहाँ तक (तो) आत्मतत्त्व की जानकारी - अध्याकत्मज्ञान की खूबी और बारीकी - तुम्हें बताई जा चुकी। अब योग की भी जानकारी - कर्म की पूरी जानकारी और उसकी बारीकी - वाली वह बात भी सुन लो जिसके करते कर्मों के बंधन से अपना पिंड छुड़ा लोगे। 39।


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